साप्ताहिक त्रिदिवसीय काव्य प्रतियोगिता
अंतस के आरेख
शीर्षक-सवेरा कब ऐसा आएगा ?
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
मजबूरी के माथे से ,
लाचारी का आँचल ढलकेगा।
शक, घृणा ,ईर्ष्या ,द्वेष दंभ
का कोहरा छँट जाएगा ।
मायूसियाँ मिट जाएगी ,
सुख का बादल बरसेगा।
उम्मीदों का सूरज चमकेगा,
मुस्कान अधरों पर थिरकेगा ।।
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
जिस सुबह की आस में
दिन-रात परिश्रम करते हैं ।
भूखे -प्यासे वह बेधड़क ,
बेबाक कठिनाइयाँ सहते हैं।
पैरों में छाले बिवाइयाँ बड़े ,
मार्ग में डटकर बढ़ते हैं ।
इन तकलीफों के पिंजर से ,
परिंदा कब बाहर आएगा।।
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
यह शतरंज की कैसी भी बिसात है ,
मोहरों की कीमत कुछ भी नहीं ।
सिक्कों का है मोल बड़ा ,
जज्बातें सस्ती अरमानें बिकी ।
रिश्तो का मूल्य समझ ना सका,
एहसास भी जहाँ व्यापार बना।
दिल को पत्थर बना लिया,
अश्रु करुणा सब सुखा लिया ।।
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
दौलत की तृष्णा
हाय मची !
आतंक ,अन्याय
तन कर खड़ी !
इंसानी इज्जत कुछ भी नहीं,
पैसों से मिलता शोहरत यहीं !
कब मानव मानव को मना पाएगा?
संवेदना समझ कद्र कर पाएगा?
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
बच्चे न बिकें,अस्मत न लुटें।
दहेज के लिए शादी न रुके ।
मदिरा के लिए रिश्ते न टूटे ,
घर -घर शिक्षा के दीप जलें ।
सब स्वावलंबी बने नेक बने,
अपनी एक पहचान बनें ।
देश तुम पर नाज करें,
इतिहास गौरव गान करें।।
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
मुखौटों का है राज यहाँ,
सच का होता नहीं ,पर्दाफाश जहाँ।
मक्कारी ,अय्याशी ,काले करतूत,
भ्रष्टाचार का बोलबाला यहाँ ।
दलीली, वकालत ,अंधा कानून बसे।
धर्म, नीति, कानून हाथ जोड़े खड़े,
अधर्म ,अन्याय कब थम पाएगा?
कब पाप में पंक खिल पाएगा?
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सवेरा कब ऐसा आएगा ?
बेरोजगारी ,आतंकवाद का दंश
झूठी शान अदब का दंभ ।
संस्कारों का मूल्य कुछ भी नहीं,
विलासिता ,भौतिकता सिर चढ़ी।
रोबोट बने या बूत खड़े ,
जज्बात ,संवेदना धूल मिले।
कब भावनाएँ प्रसून खिलाएगी,
कब धरा स्वर्ग सी बन जाएगी।।
ऐ हवा ,ऐ घटा बता
सुबह कब ऐसा आएगी ?
अंशु प्रिया अग्रवाल
मस्कट ओमान
स्वरचित अप्रकाशित
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