झाँकी चिड़ियाघर की ।
तुम्हें हँसाएँ, तुम्हें नचाएँ
दर्शन पाएँ ,जीवंत हो जाएँ ।।
कोयल, पपीहा तोते गाते ,
हैं आज अलग ही गाना ।
सूना है मानव बिन ,
ना कोई ,सुनता तराना ।।
बंदर भी उछलता -कूदता
मनु छौनों को विचलित ढूँढता ।
क्या हुआ मनुष्य को ?
कोई दर्शन क्यों ना देता ?
हाथी भी सूँड हिला -हिला
कर चिंता जतलाता ।
दूर-दूर तक कोई मानव ,
नजर नहीं क्यों आता?
चिड़ियाँ आई संदेशा लेकर,
टिकट घर है खाली ।
बहुत ही सन्नाटा है ,
नजारा अद्भुत है आली ।।
चहल-पहल या शोर नहीं है,
आपाधापी दौड़ नहीं है ।
मौन दिशाएँ ,शांत फिजाएँ ,
रुख बदलती ये क्यों हवाएँ ।।
ना कोई वाहन दिखता ,
ना ही शोर शराबा ।।
पता नहीं सब गए कहाँ
क्या हुआ कोई खून खराबा?
शेर ने थोड़ा गुर्रा कर कहा ,
तुम सब चुप हो जाओ ।
जाओ बाहर जाकर पूरा
ब्यौरा बना कर लाओ ।।
फिर जंगल के राजा ने कुछ सोचा ,
नहीं-नहीं संकट की घड़ी दिखती है ।
मैं भी साथ चलूँगा ,मानव अस्तित्व
की समस्या का खुद निदान करूँगा ।।
लांघ दिए चिड़ियाघर को ,
चले वह पता लगाने ।
ना किसी ने रोका ,ना किसी ने टोका ,
कोई आफत ना आई ,ना कहीं सक्रियता ।।
स्वच्छंद घूमते थे आज,
जो कटघरे में रहते थे ।
हैरान थे, चिंतित वे ,
आगे बढ़ते जाते थे ।।
कोई नहीं है शून्य- सन्नाटा,
बहुत अद्भुत था ,बहुत अटपटा ।
सड़कें खाली ,चौराहे रिक्त,
दिखें खाकी वर्दी में सिपाही कुछ ।।
देखा जानवरों को तो ,
वे भी भागने लगे ।
जानवर तो हतप्रभ थे ,
भूख- प्यास भी भूले थे ।।
क्या संकट का माहौल
इन मनुष्यों पर आया?
चिंता की लकीर उनके ,
मस्तिष्क पर था गहराया ।
तभी कौवा बोला !
अरे! खिड़कियों में मानव कैद है
झाँक रहे हैं मूकदर्शक,
कोई नहीं स्वच्छंद है ।।
सियार ने कहा अब बात समझ आई,
यह मानव का चिड़ियाघर है।
इनको देखने के लिए ,
टिकट का भी नहीं प्रबंध है ।।
अरे ! बिल्ली ने कहा ,
इनके मुंह पर भी ताला बंद है !
हाय! री ! कुदरत तेरा यह ,
कैसा चलता द्वंद है ।।
प्रकृति को पाट दिया मानव ने ,
पेड़ों को रौंदा इन्होंने ।
जो -जो मनमानी सूझा करता रहा !
चैतन्य था ! कहाँ वह कुछ सोचा ?
आज प्रकृति माँ है कुपित,
उद्दंडता की सजा दी है ।
दरवाजे में बंद कर दिया ,
घायल मन में पत्थर रख लिया ।।
दुआ करते हैं हम, पशु पक्षी प्रभु!
इनको कर दो फिर स्वच्छंद ।
भूले भटके प्राणी का ,
मिटा दो सब दर्द व द्वंद।।
अंशु प्रिया अग्रवाल
मस्कट ओमान
स्वरचित अप्रकाशित
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